जो लोग मेरे पास आकर कहते हैं की आत्म विस्वास कहाँ से लायें तो मैं उन्हें कहता हूँ की "भूल जाओ " तुम्हे आत्म विस्वास कभी नहीं मिल सकता. जिसे तुम बाहर ढूँढ़ते हो तुम उससे बने हो.
तुम निर्बल नहीं हो. तुम जो भी करते हो, सोचते हो उससे संसार पर उतना ही असर पड़ता है जितना तुम्हारे आस पास के लोगों का तुम पर पड़ता. तुम जितना ज्यादा शुद्ध होगे तुम्हारा असर उतना ज्यादा होगा.
तुम स्नान करते हो तो तुम्हारा शरीर शुद्ध होता है. कुछ लोग जो हिप्पी होते हैं, उनके बाल उलझ जाते हैं ओर उसमें कीड़े मकोड़े अपना घोंसला बना लेते हैं.
तुम सत्संग मैं होते हो, गाते हो, सुनते हो तो तुम्हारा मन शुद्ध होता है.
तुम ज्ञान ग्रहण करते हो तो बुद्धि शुद्ध होती है.
तुम सेवा करते हो तो तुम्हारा कर्म शुद्ध होता है, तुम्हारे आस पास के लोग शुद्ध होते हैं. तुम्हारा आस पड़ोस शुद्ध होता है.
तुम जितना ज्यादा शुद्ध होगे उतने ज्यादा निर्मल ओर सरल होगे.
तुम साक्षी हो, तुम आत्मा हो. आत्मा ही साक्षी है. इसका तुम्हे बोध हो, बस, फिर तुम सुखी हो. इस सर्प रुपी संसार के परे तुम आनंद से पूर्ण हो, तृप्त हो हो, परमानन्द हो. तुम्हे सिर्फ मुक्त होने का अभिमान रहे, फिर ओर किसी अभिमान की जरूरत नहीं है.
जब तुम दुःख मैं होते हो तो एक पत्थर के सामान होते हो, भारी, ऐसा लगता है की भोज ढो रहे हो, दबे जा रहे हो.
जब तुम सुखी होते हो तो एक फूल के सामान होते हो, खुसबू फैलाते हुए फिरते हो. तुम्हे भी खुसबू तो मिलती ही है. ऐसा लगता है की खिलते जा रहे हो, फैलते जा रहे हो.
तुम किस जिम्मेदारी के नीचे दबे हो, कल तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी फिर तुम्हारी जिम्मेदारी का क्या होगा. जो जिम्मेदारी निभा रहा है उस को निभाने दो तुम क्यूं इस भोझ मैं दबे जा रहे हो. तुम तो भस्म हो, एक दिन राख हो जाओगे. उससे पहले अपनी दुनिया जितनी शुद्ध कर सको करलो.
तुम्हारे अन्दर एक सत्ता है, एक शक्ति है, जो असंग है, अक्रिये है, जो साक्षी है, जो पूर्ण है, जो तृप्त है, जो मुक्त है, जो शांत है, जो सुख है, जो विस्वास है, जो आनंद है . उसमें विलीन हो जाओ, उसके बोध मैं रहो.
जैसी तुम्हारी मन की मति होगी वैसी तुम्हारी गति होगी. जैसी मति वैसी गति.
एक बार एक इंसान जो एक बाग़ का रक्षक था एक पत्थर पर चड़कर लोगों को बुलाता था ओर कहता था की "आओ मेरे बाग़ के फूल ले जाओ, फल ले जाओ, मेरे बाग़ मैं घूमो फिरो". लेकिन जब वह पत्थर से उतरता था तो लोगों को डंडा दिखाकर भगाता था. सब परेशान थे की ऐसा क्यों करता है, अगर वह इंसान आजकल होता तो उससे पागल करार देते ओर जेल मैं डाल देते लेकिन उस ज़माने के लोगों ने ऐसा नहीं किया. एक बुद्धिमान ने कहा के इस पत्थर के नीचे खोद के पता करो की क्या है. तो वहां राजा विक्रमादित्य का सिंहासन निकला.
तुम्हारे जाने के बाद भी तुम्हारे विचार ओर उनका असर समाज पर रहता है इसलिए जब तक हो सोच समझ कर विचार छोड़ो.
अब किस भ्रम मैं हो.
तुम निर्बल नहीं हो. तुम जो भी करते हो, सोचते हो उससे संसार पर उतना ही असर पड़ता है जितना तुम्हारे आस पास के लोगों का तुम पर पड़ता. तुम जितना ज्यादा शुद्ध होगे तुम्हारा असर उतना ज्यादा होगा.
तुम स्नान करते हो तो तुम्हारा शरीर शुद्ध होता है. कुछ लोग जो हिप्पी होते हैं, उनके बाल उलझ जाते हैं ओर उसमें कीड़े मकोड़े अपना घोंसला बना लेते हैं.
तुम सत्संग मैं होते हो, गाते हो, सुनते हो तो तुम्हारा मन शुद्ध होता है.
तुम ज्ञान ग्रहण करते हो तो बुद्धि शुद्ध होती है.
तुम सेवा करते हो तो तुम्हारा कर्म शुद्ध होता है, तुम्हारे आस पास के लोग शुद्ध होते हैं. तुम्हारा आस पड़ोस शुद्ध होता है.
तुम जितना ज्यादा शुद्ध होगे उतने ज्यादा निर्मल ओर सरल होगे.
तुम साक्षी हो, तुम आत्मा हो. आत्मा ही साक्षी है. इसका तुम्हे बोध हो, बस, फिर तुम सुखी हो. इस सर्प रुपी संसार के परे तुम आनंद से पूर्ण हो, तृप्त हो हो, परमानन्द हो. तुम्हे सिर्फ मुक्त होने का अभिमान रहे, फिर ओर किसी अभिमान की जरूरत नहीं है.
जब तुम दुःख मैं होते हो तो एक पत्थर के सामान होते हो, भारी, ऐसा लगता है की भोज ढो रहे हो, दबे जा रहे हो.
जब तुम सुखी होते हो तो एक फूल के सामान होते हो, खुसबू फैलाते हुए फिरते हो. तुम्हे भी खुसबू तो मिलती ही है. ऐसा लगता है की खिलते जा रहे हो, फैलते जा रहे हो.
तुम किस जिम्मेदारी के नीचे दबे हो, कल तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी फिर तुम्हारी जिम्मेदारी का क्या होगा. जो जिम्मेदारी निभा रहा है उस को निभाने दो तुम क्यूं इस भोझ मैं दबे जा रहे हो. तुम तो भस्म हो, एक दिन राख हो जाओगे. उससे पहले अपनी दुनिया जितनी शुद्ध कर सको करलो.
तुम्हारे अन्दर एक सत्ता है, एक शक्ति है, जो असंग है, अक्रिये है, जो साक्षी है, जो पूर्ण है, जो तृप्त है, जो मुक्त है, जो शांत है, जो सुख है, जो विस्वास है, जो आनंद है . उसमें विलीन हो जाओ, उसके बोध मैं रहो.
जैसी तुम्हारी मन की मति होगी वैसी तुम्हारी गति होगी. जैसी मति वैसी गति.
एक बार एक इंसान जो एक बाग़ का रक्षक था एक पत्थर पर चड़कर लोगों को बुलाता था ओर कहता था की "आओ मेरे बाग़ के फूल ले जाओ, फल ले जाओ, मेरे बाग़ मैं घूमो फिरो". लेकिन जब वह पत्थर से उतरता था तो लोगों को डंडा दिखाकर भगाता था. सब परेशान थे की ऐसा क्यों करता है, अगर वह इंसान आजकल होता तो उससे पागल करार देते ओर जेल मैं डाल देते लेकिन उस ज़माने के लोगों ने ऐसा नहीं किया. एक बुद्धिमान ने कहा के इस पत्थर के नीचे खोद के पता करो की क्या है. तो वहां राजा विक्रमादित्य का सिंहासन निकला.
तुम्हारे जाने के बाद भी तुम्हारे विचार ओर उनका असर समाज पर रहता है इसलिए जब तक हो सोच समझ कर विचार छोड़ो.
अब किस भ्रम मैं हो.
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