यह विचार आते कहाँ से हैं.
शरीर से,
वातावरण से,
डर से,
प्रेम से,
इन्द्रियों से,
व्यक्तियों से,
व्यक्तित्व से,
आत्मा से या फिर
परमात्मा से.
लेकिन जहाँ से भी आते हैं, यह बीज की तरह मन की धरातल पल पनपने के लिए क्यूं तत्पर होते हैं.
कुछ विचार ऐसे हावी हो जातें हैं जैसे उनका कोई अंत नहीं.
कुछ कब आते हैं ओर कब चले जाते हैं, उनकी कोई खबर नहीं.
कुछ विचार ऐसे कोड़े बरसते हैं की मन के साथ साथ शरीर भी छलनी छलनी हो जाता है.
कुछ विचार बर्फ के गोले होतें हैं ओर शरीर को सुन्न कर देते हैं.
कुछ विचार कल कल करते झरने की तरेह फुदकते रहतें हैं.
कुछ ऐसे मिलतें हैं जैसे सदियों बाद पाठशाला के मित्र मिलें हों.
कुछ ऐसी चट्टान होतें हैं की छाती भारी कर जातें हैं.
छाती फिर ऐसे विचारों की उत्पत्ति करती है की मन भारी हो जाता है.
फिर एक दूजे के बोझ तले दब कर खुद की पहचान को नष्ट कर देते हैं.
आत्मीयता को ध्वंश कर देते हैं.
इन विचारों को जन्म कोई भी देता हो, कहीं से भी पनपते हों, इनका पालन पोषण तो तुम ही करते हो.
तुम इन्हें अपनाते हों, परिपक्व करते हो, फिर कहते हो की मन चंचल है.
यह स्यवं से चंचलता कहाँ से आ सकती है भला, इसकी माता भी तो तुम ही हो.
मन के साथ इश्वर ने बुद्धी भी तो दी है, इसे क्यूं नहीं पानी पिलाते हो, खाना खिलते हो, आराम करने के लिए स्थान बनाते हो. इसे क्यूं नहीं राजा बनाते हो, सिंहासन पर बिठाते हो.
मन को सैनिक ही रहने दो ओर साम्राज्य की खबर लाने दो. उसके बहकावे मैं मत आओ, क्यूंकि वह तुम्हे येकीन दिलाता रहेगा की वह राजा है ओर तुम मानते रहोगे.
येही माया का नियम है.
जिस तुम अपना मान बैठे हो वह तुम्हारा मन है, जिसे तुम भूला बैठे हो वह तुम्हारी आत्मा है.
विचार संकल्प होतें हैं, उनका श्रोत जब तक आत्मा है तब तक वह शुद्ध होतें है, उनमें विकार नहीं होता. वह तुम्हे सुख,शांति, ख़ुशी ओर परमात्मा तक ले जाने को तत्पर होतें हैं. येही इनकी पहचान है.
अब से जब भी विचार आयें तो उनसे पूछों की कहाँ से आये हो, क्यूं आये हो ओर मेरे मन मैं खलबली क्यूं मचा रहे हो. फिर भी न सुने तो उन्हें गले लगा के, उनकी सुन के उन्हें कचरे के डब्बे मैं दाल दो, उन सबको जिनका श्रोत आत्मा न हो. क्या कहते हों.
शरीर से,
वातावरण से,
डर से,
प्रेम से,
इन्द्रियों से,
व्यक्तियों से,
व्यक्तित्व से,
आत्मा से या फिर
परमात्मा से.
लेकिन जहाँ से भी आते हैं, यह बीज की तरह मन की धरातल पल पनपने के लिए क्यूं तत्पर होते हैं.
कुछ विचार ऐसे हावी हो जातें हैं जैसे उनका कोई अंत नहीं.
कुछ कब आते हैं ओर कब चले जाते हैं, उनकी कोई खबर नहीं.
कुछ विचार ऐसे कोड़े बरसते हैं की मन के साथ साथ शरीर भी छलनी छलनी हो जाता है.
कुछ विचार बर्फ के गोले होतें हैं ओर शरीर को सुन्न कर देते हैं.
कुछ विचार कल कल करते झरने की तरेह फुदकते रहतें हैं.
कुछ ऐसे मिलतें हैं जैसे सदियों बाद पाठशाला के मित्र मिलें हों.
कुछ ऐसी चट्टान होतें हैं की छाती भारी कर जातें हैं.
छाती फिर ऐसे विचारों की उत्पत्ति करती है की मन भारी हो जाता है.
फिर एक दूजे के बोझ तले दब कर खुद की पहचान को नष्ट कर देते हैं.
आत्मीयता को ध्वंश कर देते हैं.
इन विचारों को जन्म कोई भी देता हो, कहीं से भी पनपते हों, इनका पालन पोषण तो तुम ही करते हो.
तुम इन्हें अपनाते हों, परिपक्व करते हो, फिर कहते हो की मन चंचल है.
यह स्यवं से चंचलता कहाँ से आ सकती है भला, इसकी माता भी तो तुम ही हो.
मन के साथ इश्वर ने बुद्धी भी तो दी है, इसे क्यूं नहीं पानी पिलाते हो, खाना खिलते हो, आराम करने के लिए स्थान बनाते हो. इसे क्यूं नहीं राजा बनाते हो, सिंहासन पर बिठाते हो.
मन को सैनिक ही रहने दो ओर साम्राज्य की खबर लाने दो. उसके बहकावे मैं मत आओ, क्यूंकि वह तुम्हे येकीन दिलाता रहेगा की वह राजा है ओर तुम मानते रहोगे.
येही माया का नियम है.
जिस तुम अपना मान बैठे हो वह तुम्हारा मन है, जिसे तुम भूला बैठे हो वह तुम्हारी आत्मा है.
विचार संकल्प होतें हैं, उनका श्रोत जब तक आत्मा है तब तक वह शुद्ध होतें है, उनमें विकार नहीं होता. वह तुम्हे सुख,शांति, ख़ुशी ओर परमात्मा तक ले जाने को तत्पर होतें हैं. येही इनकी पहचान है.
अब से जब भी विचार आयें तो उनसे पूछों की कहाँ से आये हो, क्यूं आये हो ओर मेरे मन मैं खलबली क्यूं मचा रहे हो. फिर भी न सुने तो उन्हें गले लगा के, उनकी सुन के उन्हें कचरे के डब्बे मैं दाल दो, उन सबको जिनका श्रोत आत्मा न हो. क्या कहते हों.
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