तुम वही हो. तुम सूर्य कि किरण नहीं, तुम उस किरण का विस्तार हो. तुम सूर्य हो.
जिस प्रकार सूर्ये अपनी किरणों को हर खिड़की के माध्यम से हर घर मैं भेजता है, उसी प्रकार परमात्मा अपनी पूर्णता को छोटी छोटी आत्मायों मैं भेजता है.
यह बात दूसरी है कि जब आत्मा अपने पुर मैं वास करने लगती है, अपने शरीर रुपी घर मैं रहने
लगती है तो भूल जाती है कि वह सिमित नहीं है, उसका विस्तार ही परमात्मा है.
लेकिन घर मैं घुसने के बाद आप कांच के टुकड़े मैं सूर्य का प्रतिबिम्ब देखते हो ओर अपने आप को सिर्फ एक किरण मात्र समझने लगते हो. जरा बाहर झाँक कर भी देखो, सूर्य का अनुभव तो करो. तुम्हारे आस पास भी वही सूर्य का अंश है. तुम्हारे पड़ोस मैं भी वही सूर्य कि किरण है, तुम्हारे गाँव मैं जो रिश्तेदार हैं वहां भी वही सूर्ये है. सूर्य कोई भेद भाव नहीं करता. तुम क्यूं ऊँच- नींच मैं पड़े हो.
तुम्हारे दुःख का कारण क्या है. तुम गुरु से तो मिले हो. तुमने गुरु को साक्षात् किया है. लेकिन तुम संपूर्णतः यह निश्चय नहीं कर पाए हो कि येही सत्य है. पूरे भरोसे कि कमी होने से ही दुःख होता है.
यह संकल्प किस के पूरे होते हैं? आपके जो एक दिन मैं ५०००० संकल्प करते हैं या उनके जो ५० दिन मैं एक करते हैं. ऋषि मुनियों का मन शांत होता है ओर जब उस शांत मन मैं संकल्प उठता है तो वह अवस्य पूरा होता है.
यह संकल्प उस बिजली कि शक्ति के सामान है जो एक सेल मैं भी होती है ओर मैन लाइन मैन भी होती है. सेल मैन चंद वोल्ट कि होती है ओर मैन लाइन मैन ४४० वोल्ट कि होती है. आपके संकल्प जब हजारों मैन होतें हैं तब आपकी उर्जा बिखर जाती है ओर आपके संकल्प कि सकती एक सेल के बराबर हो जाती है. लेकिन जब ध्यान से जब आप अयोग्य से योग्य के मार्ग पे आ जाते हो तो आपकी संकल्प शक्ति के वोल्ट बड़ते जाते हैं. यह शक्ति किसी आतंकवादी कि बन्दूक से कम नहीं, न ही हमें इसे छोटा समझना चाहिए. तुम्हारे भावों के प्रहार से कई लोग एक साथ प्रभु मार्ग के लिए तत्पर हो सकते हैं. कभी अपनी प्रीति को आजमा के देखा है क्या?
दूसरा नियम संकल्प पूर्ण करने में है कि संकल्प लेने के बाद आप उसे अपने किसी प्रिये जन को समर्पित कर दें या फिर गुरु को. उसे अपने से चिपका कर नहीं रखें. उससे मुक्त हो जायें. तब प्रकृति कि सारी शक्तियां उसे पोर्न करने में लग जातीं हैं ओर वह पूर्ण हो जाता है.
जैसे कि आप सिनेमा देखने जाते हो तो टिकेट खरीदकर दरवाज़े पर उसे किसी को दे देते हो. उसे अपने पास रखोगे तो न तो अन्दर जा पाओगे, न सिनेमा देख पाओगे, ओर चिंता में रहोगे कि कोई मेरा टिकेट छीन न लें. उसे समर्पित करो ओर सिनेमा में मस्त रहो.
तीसरा नियम होता है कि आप सकल्प करने के बाद उस पर सवाल नहीं करैं, शक नहीं करने ओर न ही उसे संशय से भर दे. आप कार से कहीं जा रहे हो तो हैण्ड brake लगा के कार चलोगे तो आगे जाने में कितना सफल होगे. जिसको संकल्प दिया है उस पर विस्वास करना सीखो.
कुछ लोग सुदर्शन क्रिया को exercise मान कर करते हैं और उसके भव में नहीं डूब पाते हैं, इसलिए उनपर उसका असर नहीं पड़ता है. वह अधर्म पर चलते रहतें और उनकी समझ में में नहीं आता है कि इस क्रिया का आसर उनपर क्यूं नहीं हो रहा है. या फिर ऐसा भी हो सकता है कि जो आपको अधर्म दिख रहा हो वह उनके लिए धर्म हो, जैसे कि श्री राम या फिर श्री कृष्ण का मार्ग. लेकिन जहाँ तक हो सके हमें श्री राम के मार्ग पर ही चलना चाईए और उसे धर्म मानना चाहिए.
आज कल के युवा परेशान रहतें हैं कि उनके माँ बाप उनकी बात नहीं मानते हैं और अपनी बातें उन पर धोपते रहतें हैं. तो इस कारण हमें उनकी सेवा में कोई कमी नहीं छोडनी चाईए और समझना चाहिए के उनके समय के हिसाब से वह सही हैं लेकिन इसका मतलाब यह नहीं कि हम उनकी सर्री बातें माने, हमारे समय में भी बदलाव आता है और हम उसके साथ बहते हैं, उसके साथ समझोता करते हैं. हमें अपनी मर्यादा निर्धारित कर उसमें रहना जरूरी है.
जिस प्रकार सूर्ये अपनी किरणों को हर खिड़की के माध्यम से हर घर मैं भेजता है, उसी प्रकार परमात्मा अपनी पूर्णता को छोटी छोटी आत्मायों मैं भेजता है.
यह बात दूसरी है कि जब आत्मा अपने पुर मैं वास करने लगती है, अपने शरीर रुपी घर मैं रहने
लगती है तो भूल जाती है कि वह सिमित नहीं है, उसका विस्तार ही परमात्मा है.
लेकिन घर मैं घुसने के बाद आप कांच के टुकड़े मैं सूर्य का प्रतिबिम्ब देखते हो ओर अपने आप को सिर्फ एक किरण मात्र समझने लगते हो. जरा बाहर झाँक कर भी देखो, सूर्य का अनुभव तो करो. तुम्हारे आस पास भी वही सूर्य का अंश है. तुम्हारे पड़ोस मैं भी वही सूर्य कि किरण है, तुम्हारे गाँव मैं जो रिश्तेदार हैं वहां भी वही सूर्ये है. सूर्य कोई भेद भाव नहीं करता. तुम क्यूं ऊँच- नींच मैं पड़े हो.
तुम्हारे दुःख का कारण क्या है. तुम गुरु से तो मिले हो. तुमने गुरु को साक्षात् किया है. लेकिन तुम संपूर्णतः यह निश्चय नहीं कर पाए हो कि येही सत्य है. पूरे भरोसे कि कमी होने से ही दुःख होता है.
यह संकल्प किस के पूरे होते हैं? आपके जो एक दिन मैं ५०००० संकल्प करते हैं या उनके जो ५० दिन मैं एक करते हैं. ऋषि मुनियों का मन शांत होता है ओर जब उस शांत मन मैं संकल्प उठता है तो वह अवस्य पूरा होता है.
यह संकल्प उस बिजली कि शक्ति के सामान है जो एक सेल मैं भी होती है ओर मैन लाइन मैन भी होती है. सेल मैन चंद वोल्ट कि होती है ओर मैन लाइन मैन ४४० वोल्ट कि होती है. आपके संकल्प जब हजारों मैन होतें हैं तब आपकी उर्जा बिखर जाती है ओर आपके संकल्प कि सकती एक सेल के बराबर हो जाती है. लेकिन जब ध्यान से जब आप अयोग्य से योग्य के मार्ग पे आ जाते हो तो आपकी संकल्प शक्ति के वोल्ट बड़ते जाते हैं. यह शक्ति किसी आतंकवादी कि बन्दूक से कम नहीं, न ही हमें इसे छोटा समझना चाहिए. तुम्हारे भावों के प्रहार से कई लोग एक साथ प्रभु मार्ग के लिए तत्पर हो सकते हैं. कभी अपनी प्रीति को आजमा के देखा है क्या?
दूसरा नियम संकल्प पूर्ण करने में है कि संकल्प लेने के बाद आप उसे अपने किसी प्रिये जन को समर्पित कर दें या फिर गुरु को. उसे अपने से चिपका कर नहीं रखें. उससे मुक्त हो जायें. तब प्रकृति कि सारी शक्तियां उसे पोर्न करने में लग जातीं हैं ओर वह पूर्ण हो जाता है.
जैसे कि आप सिनेमा देखने जाते हो तो टिकेट खरीदकर दरवाज़े पर उसे किसी को दे देते हो. उसे अपने पास रखोगे तो न तो अन्दर जा पाओगे, न सिनेमा देख पाओगे, ओर चिंता में रहोगे कि कोई मेरा टिकेट छीन न लें. उसे समर्पित करो ओर सिनेमा में मस्त रहो.
तीसरा नियम होता है कि आप सकल्प करने के बाद उस पर सवाल नहीं करैं, शक नहीं करने ओर न ही उसे संशय से भर दे. आप कार से कहीं जा रहे हो तो हैण्ड brake लगा के कार चलोगे तो आगे जाने में कितना सफल होगे. जिसको संकल्प दिया है उस पर विस्वास करना सीखो.
कुछ लोग सुदर्शन क्रिया को exercise मान कर करते हैं और उसके भव में नहीं डूब पाते हैं, इसलिए उनपर उसका असर नहीं पड़ता है. वह अधर्म पर चलते रहतें और उनकी समझ में में नहीं आता है कि इस क्रिया का आसर उनपर क्यूं नहीं हो रहा है. या फिर ऐसा भी हो सकता है कि जो आपको अधर्म दिख रहा हो वह उनके लिए धर्म हो, जैसे कि श्री राम या फिर श्री कृष्ण का मार्ग. लेकिन जहाँ तक हो सके हमें श्री राम के मार्ग पर ही चलना चाईए और उसे धर्म मानना चाहिए.
आज कल के युवा परेशान रहतें हैं कि उनके माँ बाप उनकी बात नहीं मानते हैं और अपनी बातें उन पर धोपते रहतें हैं. तो इस कारण हमें उनकी सेवा में कोई कमी नहीं छोडनी चाईए और समझना चाहिए के उनके समय के हिसाब से वह सही हैं लेकिन इसका मतलाब यह नहीं कि हम उनकी सर्री बातें माने, हमारे समय में भी बदलाव आता है और हम उसके साथ बहते हैं, उसके साथ समझोता करते हैं. हमें अपनी मर्यादा निर्धारित कर उसमें रहना जरूरी है.
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