आत्म ज्ञान पाने कि कोई शर्त नहीं होती, यह बेशर्त ही तुम पा सकते हो. तुम वर्तमान समय मैं निर्दोष हो. तुम इस वक़्त अपने कर्मों के फल से भी मुक्त हो.
लेकिन अगर तुम कहते रहोगे कि नहीं मैं गुस्सेल हूँ, नालायक हूँ, बद्तमीच हूँ, दीन हूँ, निर्दयी हूँ, पापी हूँ, तब तुम वही रहोगे. तुम्हारे मन को तुम्हारी दीनता सुन्दर लगती है, लेकिन तुम्हे इससे ख्ब्राहत होती है, डर लगता है, क्यूंकि यह सुन्दरता अब मलिन हो गयी है.
ध्यान के बाद बाद तुम्हे गुस्सा तो आता है लेकिन वह आ कर चला भी जाता है. उसमें ठहराव नहीं है. और ध्यान करोगे तो शायद एक दिन ऐसा भी आएगा कि गुस्सा तुम्हारे आस पास भी नहीं आएगा.
कुछ लोग आत्म ज्ञान पाने के बाद भी काम वासना से बच नहीं पाते, यह कितने आश्चर्ये कि बात है.
कितने जन्मों से हम अपने अंगों से आसक्ति बनाये हुए हैं. कुछ लोग तो बुडापे में भी जनेंद्रियोँ के अधीन होतें हैं. वो मन से गरम और तन से ठन्डे होतें हैं. हमें ध्यान मन से ठंडा और तन से गरम बनता है.
हमारे पैदा होने के साथ ही हमें माँ के स्तन में आकर्षण होता है, क्यूंकि हमें वहां से दूध मिलता है. तमिलनाडु मैं एक देवी हैं जिनका नाम ही है "बड़े स्तन वालीं". सती के ५२ अंग भी ५२ जगह पर गिरे और वहां शक्ति पीठ कि स्थापना हुई. यहाँ पर नारी के ५२ अंगों कि पूजा कि जाती हैं, उनमें नाक, कान, जनेंद्रियाँ आदि सब हैं. हम लोग शिव लिंग को भी सदियाँ से पूजते आये हैं.
हमारी संस्कृति हमें अंगों को प्रणाम करने को कहती, उन्हें नमस्कार करने को कहती हैं, उनका सम्मान करने को कहती है. जब हम किसी का सम्मान करते हैं तब उसकी निंदा कैसे कर सकते हैं. तब हम उनमें आसक्त नहीं होते हैं.
किसी भी अंग मैं खो जाने और दिन रात उसके बारे मैं सोचना वासना है. मन सुन्दरता कि और भागता है. मन को जो सुन्दर लगता है वह उसका ही विचार करता है. अपने विचारों कि ओर ध्यान दो और बुद्धी से पूछो कि इसमें क्या सुन्दरता है?
अगर कोई चीज़ मन को सुन्दर लगती है तो वह उसे अपनाने कि होड़ मैं लग जाता है, तब सुन्दरता वासना मैं परिवर्तित हो जाती है और उसे वश मैं कर लेती है. हम वासुदेव को भूल जातें हैं. फिर कुछ समय पर्यंत वही चीज़ उसे मलिन लगने लगती है और वह उससे दूर भागता है.
दो प्रेमी जब मिलते हैं तो एक दुसरे से वादा करते हैं कि मैं तुम्हारे बिन जी नहीं सकता. एक बार उसे पा लेते हैं और अनुभव कर लेते हैं फिर कहतें हैं कि तुम्हारे साथ जी नहीं सकता.
हम बाज़ार मैं जातें हैं और घर के लिए सुन्दर सुन्दर वस्तु लाते हैं. एक बार खरीदने के बाद जब वह हमारी हो जाती है तब घर के किसी कोने मैं पड़ी वह धूल खाती रहती है.
कहा जाता है कि ध्यान मैं जब हम चैतन्य कि अनुभूति करते हैं तो वह अनुभूति सहर्स्त्र रक्तियाओं के सामान होती है, हजारों संभोगो का एक क्षण. कभी लाश के साथ कोई सम्भोग नहीं करता, दो शरीर के खिसने मैं वह रक्ति नहीं मिलती. तब भी कहीं चेतना होती है लेकिन वह जनेंद्रियों के आकर्षण के पीछे छुपी होती है. जैसे कि आंखों मैं धूल आ जाये तो हर दृश्य मलिन दीखता है.
जो लोग night club वगेरह मैं दिन रात सम्भोग करते हैं उनकी हालत सड़क पे पड़े मरियल कुत्ते से भी दीन होती है. कभी देखा है उन्हें.
पता नहीं हमने कितने जन्मों से कितना सम्भोग किया है फिर भी जनेंद्रियाओं का आकर्षण जाता नहीं है. लेकिन यह बात निंदा करने कि नहीं है, यह सामान्य ही है और हर प्राणी मैं देखी जाती है. जनेंद्रियाओं के प्रति हमारी जानकारी बाल्य अवस्था मैं होती है, फिर जब उन अंगों का विकास होता है तो हमारी उत्सुकता ओर बाद जाती है ओर हम उस कोतुल्ह्ता मैं पता नहीं क्या कर गुजरते हैं, जब हम युवा अवस्था मैं गुजरते हैं तब पता चलता है कि क्या व्यर्थ समय था ओर बुडापे तक हम उससे विरक्त हो जाते हैं. कुछ लोगों मैं यह बुडापे तक भी रहती है लेकिन वह बेचारे दया के पात्र होते हैं.
लेकिन जब हम इसके आकर्षण से परे हो जाते तब ब्रह्मचर्ये घटित होता है. यह बाल्य , युवा या वृद्ध अवस्था मैं कभी भी हो सकता है. यहाँ से आत्म ज्ञान का सफ़र प्रारंभ होता है.
ब्रह्मचर्ये एक घटना है.
तब हम पाते हैं कि हमारी आत्मा अति सुन्दर है. सिर्फ सुन्दर ही नहीं, अति सुन्दर आत्मा है. और यह सुन्दरता कभी फीकी नहीं पड़ती. सत्यम शिवम् सुन्दरम. न कभी इसमें मलिनता आती है. यह परस्पर अनुभव ही साधक का मार्ग दर्शक होता है, कि कहीं इस जन्म मैं यह अनुभव हो जाये.
इसलिए हमारे शास्त्रों मैं हर अंगों मैं एक देवता का वास बताया है और उसका पूजन होता है. जैसे कि रूद्र पूजा मैं कहता हैं कि जनेंद्रियाओं मैं ब्रह्म प्रजनन हो, पाद मैं विष्णु भगवान् का, पेट मैं अग्नि देव का आदि आदि. किसी भी अंग को नहीं छोड़ा है. कुछ मंदिरों के बाहर तो नग्न देवतायों कि प्रतिमायें होती हैं, और जब हम मंदिर का चक्कर लगाते हैं तो उनको नमन करते हैं. हम अपनी काम वासना को बाहर हो छोड़ देते हैं. फिर हम अन्दर मंदिर मैं जा कर भगवान् का ध्यान करते हैं.
हमने गोमेत्स्वर कि भी बड़ी बड़ी प्रतिमायें बनायीं है, उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं. इस मामले मैं जुन्गालोँ मैं आदि वासी भी वस्त्र हीन होतें है ओर जनेंद्रियोँ कि छुपा छुपी से बच जाते हैं.
=============
आत्म हत्या करते वक़्त हम सोचते हैं कि इससे हमें दुःख से छुटकारा मिल जाएगा, लेकिन हमें क्या पता कि उसके बाद हमारी आत्म अगले शरीर पाने के लिए ओर भी व्याकुल होती है ओर तड़पती रहती है. फिर हमें पश्चाताप भी भोगना पड़ता है. जैसे आपको ठंडी लग रही हो तो क्या आप अपने शरीर से शाल ओर स्वेअटर निकाल के फ़ेंक दोगे, वह तो बेवकूफी होगी.
जो लोग समाधी मैं जाते हैं वह लोग स्वेचा से एक सुख कि स्थिथि मैं होते हुए ओर एक सुख कि ओर जाते हैं, उनकी आत्म १०,२०,२०० साल तक रहती है लेकिन शरीर तो इतने वर्ष नहीं रह सकता है, इसके लिए उनकी समाधी लगायी जाती है जैसे कि संत ज्ञानेश्वर कि.
==
धर्म ओर अध्यात्म मैं अंतर. धर्म कई है जैसे , शैव, वैष्णव, बुद्ध,जैन, मुस्लिम,ईसाई, लेकिन उन सब को जोड़ने कि वस्तु सिर्फ यह सौंदर्य पूर्ण आत्म होती है जिसकी जानकारी हमें अद्यात्म से होती है.
लेकिन अगर तुम कहते रहोगे कि नहीं मैं गुस्सेल हूँ, नालायक हूँ, बद्तमीच हूँ, दीन हूँ, निर्दयी हूँ, पापी हूँ, तब तुम वही रहोगे. तुम्हारे मन को तुम्हारी दीनता सुन्दर लगती है, लेकिन तुम्हे इससे ख्ब्राहत होती है, डर लगता है, क्यूंकि यह सुन्दरता अब मलिन हो गयी है.
ध्यान के बाद बाद तुम्हे गुस्सा तो आता है लेकिन वह आ कर चला भी जाता है. उसमें ठहराव नहीं है. और ध्यान करोगे तो शायद एक दिन ऐसा भी आएगा कि गुस्सा तुम्हारे आस पास भी नहीं आएगा.
कुछ लोग आत्म ज्ञान पाने के बाद भी काम वासना से बच नहीं पाते, यह कितने आश्चर्ये कि बात है.
कितने जन्मों से हम अपने अंगों से आसक्ति बनाये हुए हैं. कुछ लोग तो बुडापे में भी जनेंद्रियोँ के अधीन होतें हैं. वो मन से गरम और तन से ठन्डे होतें हैं. हमें ध्यान मन से ठंडा और तन से गरम बनता है.
हमारे पैदा होने के साथ ही हमें माँ के स्तन में आकर्षण होता है, क्यूंकि हमें वहां से दूध मिलता है. तमिलनाडु मैं एक देवी हैं जिनका नाम ही है "बड़े स्तन वालीं". सती के ५२ अंग भी ५२ जगह पर गिरे और वहां शक्ति पीठ कि स्थापना हुई. यहाँ पर नारी के ५२ अंगों कि पूजा कि जाती हैं, उनमें नाक, कान, जनेंद्रियाँ आदि सब हैं. हम लोग शिव लिंग को भी सदियाँ से पूजते आये हैं.
हमारी संस्कृति हमें अंगों को प्रणाम करने को कहती, उन्हें नमस्कार करने को कहती हैं, उनका सम्मान करने को कहती है. जब हम किसी का सम्मान करते हैं तब उसकी निंदा कैसे कर सकते हैं. तब हम उनमें आसक्त नहीं होते हैं.
किसी भी अंग मैं खो जाने और दिन रात उसके बारे मैं सोचना वासना है. मन सुन्दरता कि और भागता है. मन को जो सुन्दर लगता है वह उसका ही विचार करता है. अपने विचारों कि ओर ध्यान दो और बुद्धी से पूछो कि इसमें क्या सुन्दरता है?
अगर कोई चीज़ मन को सुन्दर लगती है तो वह उसे अपनाने कि होड़ मैं लग जाता है, तब सुन्दरता वासना मैं परिवर्तित हो जाती है और उसे वश मैं कर लेती है. हम वासुदेव को भूल जातें हैं. फिर कुछ समय पर्यंत वही चीज़ उसे मलिन लगने लगती है और वह उससे दूर भागता है.
दो प्रेमी जब मिलते हैं तो एक दुसरे से वादा करते हैं कि मैं तुम्हारे बिन जी नहीं सकता. एक बार उसे पा लेते हैं और अनुभव कर लेते हैं फिर कहतें हैं कि तुम्हारे साथ जी नहीं सकता.
हम बाज़ार मैं जातें हैं और घर के लिए सुन्दर सुन्दर वस्तु लाते हैं. एक बार खरीदने के बाद जब वह हमारी हो जाती है तब घर के किसी कोने मैं पड़ी वह धूल खाती रहती है.
ऐसी कौन सी चीज़ है जिसके लिए तुम तत्पर रह सकते हो और जिसके पाने से तुम्हे मलिनता नहीं लगे और न ही वह कभी असुंदर हो सकती हो? जिसके चस्के मैं मस्ती हो, एक उमंग हो. हमेशा हो.
कहा जाता है कि ध्यान मैं जब हम चैतन्य कि अनुभूति करते हैं तो वह अनुभूति सहर्स्त्र रक्तियाओं के सामान होती है, हजारों संभोगो का एक क्षण. कभी लाश के साथ कोई सम्भोग नहीं करता, दो शरीर के खिसने मैं वह रक्ति नहीं मिलती. तब भी कहीं चेतना होती है लेकिन वह जनेंद्रियों के आकर्षण के पीछे छुपी होती है. जैसे कि आंखों मैं धूल आ जाये तो हर दृश्य मलिन दीखता है.
जो लोग night club वगेरह मैं दिन रात सम्भोग करते हैं उनकी हालत सड़क पे पड़े मरियल कुत्ते से भी दीन होती है. कभी देखा है उन्हें.
पता नहीं हमने कितने जन्मों से कितना सम्भोग किया है फिर भी जनेंद्रियाओं का आकर्षण जाता नहीं है. लेकिन यह बात निंदा करने कि नहीं है, यह सामान्य ही है और हर प्राणी मैं देखी जाती है. जनेंद्रियाओं के प्रति हमारी जानकारी बाल्य अवस्था मैं होती है, फिर जब उन अंगों का विकास होता है तो हमारी उत्सुकता ओर बाद जाती है ओर हम उस कोतुल्ह्ता मैं पता नहीं क्या कर गुजरते हैं, जब हम युवा अवस्था मैं गुजरते हैं तब पता चलता है कि क्या व्यर्थ समय था ओर बुडापे तक हम उससे विरक्त हो जाते हैं. कुछ लोगों मैं यह बुडापे तक भी रहती है लेकिन वह बेचारे दया के पात्र होते हैं.
लेकिन जब हम इसके आकर्षण से परे हो जाते तब ब्रह्मचर्ये घटित होता है. यह बाल्य , युवा या वृद्ध अवस्था मैं कभी भी हो सकता है. यहाँ से आत्म ज्ञान का सफ़र प्रारंभ होता है.
ब्रह्मचर्ये एक घटना है.
तब हम पाते हैं कि हमारी आत्मा अति सुन्दर है. सिर्फ सुन्दर ही नहीं, अति सुन्दर आत्मा है. और यह सुन्दरता कभी फीकी नहीं पड़ती. सत्यम शिवम् सुन्दरम. न कभी इसमें मलिनता आती है. यह परस्पर अनुभव ही साधक का मार्ग दर्शक होता है, कि कहीं इस जन्म मैं यह अनुभव हो जाये.
इसलिए हमारे शास्त्रों मैं हर अंगों मैं एक देवता का वास बताया है और उसका पूजन होता है. जैसे कि रूद्र पूजा मैं कहता हैं कि जनेंद्रियाओं मैं ब्रह्म प्रजनन हो, पाद मैं विष्णु भगवान् का, पेट मैं अग्नि देव का आदि आदि. किसी भी अंग को नहीं छोड़ा है. कुछ मंदिरों के बाहर तो नग्न देवतायों कि प्रतिमायें होती हैं, और जब हम मंदिर का चक्कर लगाते हैं तो उनको नमन करते हैं. हम अपनी काम वासना को बाहर हो छोड़ देते हैं. फिर हम अन्दर मंदिर मैं जा कर भगवान् का ध्यान करते हैं.
हमने गोमेत्स्वर कि भी बड़ी बड़ी प्रतिमायें बनायीं है, उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं. इस मामले मैं जुन्गालोँ मैं आदि वासी भी वस्त्र हीन होतें है ओर जनेंद्रियोँ कि छुपा छुपी से बच जाते हैं.
=============
आत्म हत्या करते वक़्त हम सोचते हैं कि इससे हमें दुःख से छुटकारा मिल जाएगा, लेकिन हमें क्या पता कि उसके बाद हमारी आत्म अगले शरीर पाने के लिए ओर भी व्याकुल होती है ओर तड़पती रहती है. फिर हमें पश्चाताप भी भोगना पड़ता है. जैसे आपको ठंडी लग रही हो तो क्या आप अपने शरीर से शाल ओर स्वेअटर निकाल के फ़ेंक दोगे, वह तो बेवकूफी होगी.
जो लोग समाधी मैं जाते हैं वह लोग स्वेचा से एक सुख कि स्थिथि मैं होते हुए ओर एक सुख कि ओर जाते हैं, उनकी आत्म १०,२०,२०० साल तक रहती है लेकिन शरीर तो इतने वर्ष नहीं रह सकता है, इसके लिए उनकी समाधी लगायी जाती है जैसे कि संत ज्ञानेश्वर कि.
==
धर्म ओर अध्यात्म मैं अंतर. धर्म कई है जैसे , शैव, वैष्णव, बुद्ध,जैन, मुस्लिम,ईसाई, लेकिन उन सब को जोड़ने कि वस्तु सिर्फ यह सौंदर्य पूर्ण आत्म होती है जिसकी जानकारी हमें अद्यात्म से होती है.
Comments