सम्मान जहां होता है वहां कुछ दूरी भी होती है, स्नेह जहाँ होता है वहां सम्मान मुश्किल से मिलता है. हिंदी मैं एक कहावत है "घर की मुर्गी दाल बराबर ", अपने परिवार जनों से प्रेम तो बहुत है लेकिन उपेक्षा भी उतनी होती है. इसलिए कृष्ण भी कहते हैं की "हे अर्जुन, तुम मुझको प्रिये हो इसलिए मैं तुम्हे भगवत गीता सुना रहा हूँ ". उसी प्रकार अष्टावक्र भी कहतें है "हे तात " अर्धात "तुम मुझे प्रिये हो इसलिए मैं तुम्हे अष्टावक्र गीता सुना रहा हूँ."
आप अपने प्रिये जन को ही गीत सुनाते हो, न की दुश्मन को. एक राजा जिसके सामने सरे राज्य की दुःख दर्द की दास्तान पड़ी है वह साडी उम्र उसमें जकड़ा रह सकता है. या तो उसे पता छल जाये की यहाँ झूझने से कोई फायदा नहीं हैं. ओर मुक्ति की ओर चले या फिर चुप चाप ओर एक जन्म काम, अर्थ ओर धर्म मैं समय व्यर्ध करे.
एक प्यास जगनी होगी. एक तड़प. वही तुम्हे मुक्ति की तरफ खींचेगी . बैठे बैठे कुछ नहीं मिलता है ओर न ही पोथियाँ पड़ने से ज्ञान आता है. उससे मिलो जिसने ज्ञान को अपने मैं ढाल दिया हो. अगर उसने तुम्हारी ऊँगली थाम की तो कुछ हो सकता है. जरूरी नहीं की तुम सारे बंधन से एक एक करके निकलो, तुम देख कर भी समझ सकते हो.
अष्टावक्र को देख कर राजा जनक के मन मैं एक साथ सम्मान ओर स्नेह उठा ओर उन्हें आनंद हुआ. कई बार संतों की उपस्थिति मात्र से हमें सब मिल जाता है. यह बात बुद्धू से भी बढकर बुद्धू जानता है.
विषयों को विष मान कर त्याग दो. जिन्हें शक्कर की बीमारी होती है उन्हें शक्कर विष के सामान प्रतीत होती है. जब किसी चीज़ की अति हो जाती है तब मन उससे मुक्ति चाहता है.
अष्टावक्र कहतें है "यदि" इच्क्षा हो मुक्ति पाने की तभी मुक्ति मिलेगी. उसके लिए पहले स्वीकारना पड़ेगा की तुम बंधन मैं हो, अगर नहीं हो तो मुक्ति पाके क्या करोगे. अक्सर तुम्हें खुद पता नहीं होता है की तुम बंधन मैं हो. इसलिए शरीर की सुनो, उसकी पीड़ा को समझो.
लोग संसार के सम्बंदों से भाग कर ऋषि बनते हैं लेकिन वहां चेलों से परेशान हो जाते है. दुःख उनका पीछा नहीं छोड़ता. एक बार श्री राम जी के राज मैं किसी ने एक कुत्ते को बहुत मारा तो वह रोता हुआ रामजी के दरबार मैं पहुंचा. श्री राम ने कहा की इस मनुष्य को क्या दंड दें तो उसने कहा इसे किसी आश्रम का मठ निर्धीक्षक बना दें. उन्हों ने कहा ऐसा विचत्र दंड क्यूं. तो उसने कहाँ की मैं भी पहले वही था.
एक बार गुरूजी कुम्भ के मेले मैं गए. वहां एक मुनि को देखा जो वस्त्रहीन था ओर अपने सारे शरीर पर भस्म लगाये हुए था. गुरूजी ने कहा की महात्माजी कुछ ज्ञान की बातें बताईये तो उसने "हूँ हूँ " कहकर कहा की "तुम्हे ". तब गुरूजी समझ गए की जीवन मैं क्या नहीं करना चाईए. उसके शरीर के कण कण मैं तनाव भरा पड़ा था. वह ३०-४० साल से तपश्या कर रहा था. उसने कहाँ "मैं अपनी जननेन्द्रियों से एक ट्रक खींच सकता हूँ ". ट्रक चलानें के लिए तो एक चाबी मात्र ही काफी है.
एक बार एक मुनि अलाहबाद मैं किसी के यहाँ रुके. वहां एक बुजुर्ग को बहुत कस्ट था. उसके बेटे , बहु ओर सब उससे बहुत तंग करते थे ओर घर का सारा काम करवाते थे. मुनि ने सोचा उसे इस बंधन से मुक्त करते है ओर आश्रम आने का न्योता दिया. वह भड़क गया ओर क्रोध मैं बोला "क्यूं मेरा घर बर्बाद करने पर तुले हुए हो. मेरे मुन्ने का कौन ख्याल रखेगा, कौन उसकी चड्डी बदलेगा. "
विदेश मैं एक बीमारी होती है जिसमें लोगों की पेट की भूक तो मिट जाती है लेकिन मन की इच्क्षा नहीं मानती है. वो खातें हैं फिर उलटी करते है, फिर खातें हैं. शरीर की पाचों इन्द्रियों की एक सीमा होती है जिसके आगे उन्हें पीड़ा होती है. उनकी भी शरीर मैं खाने की नली बर्बाद हो चुकी है, कोई इलाज नहीं पर फिर भी वह शरीर की सुनते नहीं ओर मन जो असीमित है उसकी इच्क्षा पूरी करने चलें है.
इसलिए इंसान को "अंतर्मुखी सुखी" सूत्र का पालन करना चाहिए. बहार ध्यान रखने से शरीर धक् जाएगा ओर पीड़ा मैं रहेगा. तब परेशान होके "अगर " मन हुआ तभी मुक्ति की ओर अग्रसर होगे.
आप अपने प्रिये जन को ही गीत सुनाते हो, न की दुश्मन को. एक राजा जिसके सामने सरे राज्य की दुःख दर्द की दास्तान पड़ी है वह साडी उम्र उसमें जकड़ा रह सकता है. या तो उसे पता छल जाये की यहाँ झूझने से कोई फायदा नहीं हैं. ओर मुक्ति की ओर चले या फिर चुप चाप ओर एक जन्म काम, अर्थ ओर धर्म मैं समय व्यर्ध करे.
एक प्यास जगनी होगी. एक तड़प. वही तुम्हे मुक्ति की तरफ खींचेगी . बैठे बैठे कुछ नहीं मिलता है ओर न ही पोथियाँ पड़ने से ज्ञान आता है. उससे मिलो जिसने ज्ञान को अपने मैं ढाल दिया हो. अगर उसने तुम्हारी ऊँगली थाम की तो कुछ हो सकता है. जरूरी नहीं की तुम सारे बंधन से एक एक करके निकलो, तुम देख कर भी समझ सकते हो.
अष्टावक्र को देख कर राजा जनक के मन मैं एक साथ सम्मान ओर स्नेह उठा ओर उन्हें आनंद हुआ. कई बार संतों की उपस्थिति मात्र से हमें सब मिल जाता है. यह बात बुद्धू से भी बढकर बुद्धू जानता है.
विषयों को विष मान कर त्याग दो. जिन्हें शक्कर की बीमारी होती है उन्हें शक्कर विष के सामान प्रतीत होती है. जब किसी चीज़ की अति हो जाती है तब मन उससे मुक्ति चाहता है.
अष्टावक्र कहतें है "यदि" इच्क्षा हो मुक्ति पाने की तभी मुक्ति मिलेगी. उसके लिए पहले स्वीकारना पड़ेगा की तुम बंधन मैं हो, अगर नहीं हो तो मुक्ति पाके क्या करोगे. अक्सर तुम्हें खुद पता नहीं होता है की तुम बंधन मैं हो. इसलिए शरीर की सुनो, उसकी पीड़ा को समझो.
लोग संसार के सम्बंदों से भाग कर ऋषि बनते हैं लेकिन वहां चेलों से परेशान हो जाते है. दुःख उनका पीछा नहीं छोड़ता. एक बार श्री राम जी के राज मैं किसी ने एक कुत्ते को बहुत मारा तो वह रोता हुआ रामजी के दरबार मैं पहुंचा. श्री राम ने कहा की इस मनुष्य को क्या दंड दें तो उसने कहा इसे किसी आश्रम का मठ निर्धीक्षक बना दें. उन्हों ने कहा ऐसा विचत्र दंड क्यूं. तो उसने कहाँ की मैं भी पहले वही था.
एक बार गुरूजी कुम्भ के मेले मैं गए. वहां एक मुनि को देखा जो वस्त्रहीन था ओर अपने सारे शरीर पर भस्म लगाये हुए था. गुरूजी ने कहा की महात्माजी कुछ ज्ञान की बातें बताईये तो उसने "हूँ हूँ " कहकर कहा की "तुम्हे ". तब गुरूजी समझ गए की जीवन मैं क्या नहीं करना चाईए. उसके शरीर के कण कण मैं तनाव भरा पड़ा था. वह ३०-४० साल से तपश्या कर रहा था. उसने कहाँ "मैं अपनी जननेन्द्रियों से एक ट्रक खींच सकता हूँ ". ट्रक चलानें के लिए तो एक चाबी मात्र ही काफी है.
एक बार एक मुनि अलाहबाद मैं किसी के यहाँ रुके. वहां एक बुजुर्ग को बहुत कस्ट था. उसके बेटे , बहु ओर सब उससे बहुत तंग करते थे ओर घर का सारा काम करवाते थे. मुनि ने सोचा उसे इस बंधन से मुक्त करते है ओर आश्रम आने का न्योता दिया. वह भड़क गया ओर क्रोध मैं बोला "क्यूं मेरा घर बर्बाद करने पर तुले हुए हो. मेरे मुन्ने का कौन ख्याल रखेगा, कौन उसकी चड्डी बदलेगा. "
विदेश मैं एक बीमारी होती है जिसमें लोगों की पेट की भूक तो मिट जाती है लेकिन मन की इच्क्षा नहीं मानती है. वो खातें हैं फिर उलटी करते है, फिर खातें हैं. शरीर की पाचों इन्द्रियों की एक सीमा होती है जिसके आगे उन्हें पीड़ा होती है. उनकी भी शरीर मैं खाने की नली बर्बाद हो चुकी है, कोई इलाज नहीं पर फिर भी वह शरीर की सुनते नहीं ओर मन जो असीमित है उसकी इच्क्षा पूरी करने चलें है.
इसलिए इंसान को "अंतर्मुखी सुखी" सूत्र का पालन करना चाहिए. बहार ध्यान रखने से शरीर धक् जाएगा ओर पीड़ा मैं रहेगा. तब परेशान होके "अगर " मन हुआ तभी मुक्ति की ओर अग्रसर होगे.
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