प्रवृत्ति मैं आप कर्म करते हो, दोष को देखते हो ओर उसे सुधारते हो. आप दोषों को ढूँढ़ते नहीं हो, लेकिन वह जब आपके आस पास नज़र आते हैं तो आप उसको ठीक करने का प्रयाश करते हो.
निवृत्ति मैं आप अंतर्मुखी होते हो. आप बहाए मुखी नहीं होते है ओर अपने आप मैं विश्राम करते हो. आपकी निगाह सिर्फ अन्दर की तरफ होती हैं.
लेकिन हम प्रवृत्ति मैं अंतर मुखी हो जाते हैं ओर निष्क्रिये हो जाते हैं, निराशाबाद मैं चले जाते हैं ओर सोचतें हैं की "यह करके कोई फायदा नहीं होगा, क्यूं मैं आपना वक़्त बर्बाद करून".
ओर निवृत्ति मैं मन को चंचल कर देते हैं, उसको भागते हैं, थकते हैं, परेशान करते हैं. मन कहीं ओर होता है ओर शरीर वहीँ का वहीँ स्थूल. मन की बैचैनी शरीर मैं उतर जाती है. ओर शांत होने की वजह हम ओर दुखी हो जाते हैं.
यह शरीर स्थूल रूप मैं मिला है. जो तुम्हे मिला है उसे तो तुम जानते हो. यह सबके पास होता है ओर अलग अलग होता है. यह जीवन तुम्हे दिया जाता है की तुम इस स्थूल से सूक्ष्म की ओर बड़ो, अग्रसर हो. वही सूक्ष्म मैं अद्वैत है, सब एक है ओर चैतन्य शक्ति का मिलन है.
जनक कहते हैं, अहो!! अलख निरंजन, मैं शुद्ध हूँ, untouched, pure, eternal . एक उत्साह उनके अन्दर उमड़ता है. एक चमक आती है जिसे वह अपने अन्दर नहीं समां सकते ओर उछाल लगते है ओर कहते हैं "अहो!!", वाह वाह !! क्या बात है. यह बात कितनी सरल ओर सहज है.
हमारे जीवन मैं भी कई मौके आते हैं ऐसे ज्ञान के लेकिन हम उन्हें समझ नहीं पते है. हम सुप्त होते हैं ओर मौके चले जाते है. इसलिए जाग्रति अवश्यक है.
इसलिए निवृत्ति मैं जाकर शक्ति का संग्रह करना अवश्यक है, क्यूंकि जब हम प्रवृत्ति मैं अपने काम मैं इतना खो जाते हैं की हमें आसपास की सुध बुद्ध नहीं होती है. हम इस संसार के हो जाते है, यह शरीर भी संसार का है, इसके कस्ट भी संसार के हैं. उसी संसार मैं हम विलीन हो जाते है ओर "अहो!!" मौके छूट जाते हैं.
आश्रम मैं भी चेले आकर गुरु से कहतें हैं कि "यह व्यक्ति आश्रम के लिए ठीक नहीं है, इसे निकाल दो.". व्यक्ति ठीक नहीं "गलत है", उसकी आदत ठीक नहीं "सही है". उसकी आदत बदलने का प्रयास करो. उसकी आदतें आश्रम मैं ठीक नहीं होगीं तो ओर कहाँ हो सकती हैं.
सिख समुदाय कि स्थापना के पीछे क्या कारण था. उस समय समाज मैं अत्याचार हद से ज्यादा बाद गया था तब हजारों लोगों के दिल से एक साथ पुकार हुई कि "वाह गुरु कि फ़तेह, वाहे गुरु का खालसा ". ओर संत सिपाही समाज मैं आये तलवार लेकर. गुरु ने भी तलवार हाथ मैं ली ओर सबके मुख मैं सिर्फ गुरुनाम, गुरवानी थी. सब अंतर्मुखी हुए पर जब प्रवृत्ति का वक़्त आया तो सभी कार्यशील हुए. समाज का आलस टूटा.
निवृत्ति मैं आप अंतर्मुखी होते हो. आप बहाए मुखी नहीं होते है ओर अपने आप मैं विश्राम करते हो. आपकी निगाह सिर्फ अन्दर की तरफ होती हैं.
लेकिन हम प्रवृत्ति मैं अंतर मुखी हो जाते हैं ओर निष्क्रिये हो जाते हैं, निराशाबाद मैं चले जाते हैं ओर सोचतें हैं की "यह करके कोई फायदा नहीं होगा, क्यूं मैं आपना वक़्त बर्बाद करून".
ओर निवृत्ति मैं मन को चंचल कर देते हैं, उसको भागते हैं, थकते हैं, परेशान करते हैं. मन कहीं ओर होता है ओर शरीर वहीँ का वहीँ स्थूल. मन की बैचैनी शरीर मैं उतर जाती है. ओर शांत होने की वजह हम ओर दुखी हो जाते हैं.
यह शरीर स्थूल रूप मैं मिला है. जो तुम्हे मिला है उसे तो तुम जानते हो. यह सबके पास होता है ओर अलग अलग होता है. यह जीवन तुम्हे दिया जाता है की तुम इस स्थूल से सूक्ष्म की ओर बड़ो, अग्रसर हो. वही सूक्ष्म मैं अद्वैत है, सब एक है ओर चैतन्य शक्ति का मिलन है.
जनक कहते हैं, अहो!! अलख निरंजन, मैं शुद्ध हूँ, untouched, pure, eternal . एक उत्साह उनके अन्दर उमड़ता है. एक चमक आती है जिसे वह अपने अन्दर नहीं समां सकते ओर उछाल लगते है ओर कहते हैं "अहो!!", वाह वाह !! क्या बात है. यह बात कितनी सरल ओर सहज है.
हमारे जीवन मैं भी कई मौके आते हैं ऐसे ज्ञान के लेकिन हम उन्हें समझ नहीं पते है. हम सुप्त होते हैं ओर मौके चले जाते है. इसलिए जाग्रति अवश्यक है.
इसलिए निवृत्ति मैं जाकर शक्ति का संग्रह करना अवश्यक है, क्यूंकि जब हम प्रवृत्ति मैं अपने काम मैं इतना खो जाते हैं की हमें आसपास की सुध बुद्ध नहीं होती है. हम इस संसार के हो जाते है, यह शरीर भी संसार का है, इसके कस्ट भी संसार के हैं. उसी संसार मैं हम विलीन हो जाते है ओर "अहो!!" मौके छूट जाते हैं.
आश्रम मैं भी चेले आकर गुरु से कहतें हैं कि "यह व्यक्ति आश्रम के लिए ठीक नहीं है, इसे निकाल दो.". व्यक्ति ठीक नहीं "गलत है", उसकी आदत ठीक नहीं "सही है". उसकी आदत बदलने का प्रयास करो. उसकी आदतें आश्रम मैं ठीक नहीं होगीं तो ओर कहाँ हो सकती हैं.
सिख समुदाय कि स्थापना के पीछे क्या कारण था. उस समय समाज मैं अत्याचार हद से ज्यादा बाद गया था तब हजारों लोगों के दिल से एक साथ पुकार हुई कि "वाह गुरु कि फ़तेह, वाहे गुरु का खालसा ". ओर संत सिपाही समाज मैं आये तलवार लेकर. गुरु ने भी तलवार हाथ मैं ली ओर सबके मुख मैं सिर्फ गुरुनाम, गुरवानी थी. सब अंतर्मुखी हुए पर जब प्रवृत्ति का वक़्त आया तो सभी कार्यशील हुए. समाज का आलस टूटा.
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